सोमवार, 24 अगस्त 2009

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का सेकुलराइजेशन : महामना के स्वप्न को ध्वस्त करने की साजिश

आज विभाग में मुझ से मिलने प्रो. दीनबन्धु पाण्डेय जी आये थे। प्रोफ़ेसर पाण्डेय जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला इतिहास विभाग के अवकाश प्राप्त अध्यक्ष तथा आचार्य हैं। सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी शिक्षा और शोध की विविध गतिविधियों में सक्रिय हैं। साधारणतया पाण्डेय जी प्रसन्नचित्त ही मिलते हैं पर उस दिन वे कुछ दुःखी तथा कुछ उदास लग रहे थे। सज्जन अपना क्रोध भी नहीं छुपा पाते। इसलिये पाण्डेय जी की खिन्न मनोदशा पढ़ने में मुझे समय न लगा और मै ने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होने मेरे समक्ष दो पन्ने रख दिये। पन्नों को पढ़ कर मैं स्तब्ध रह गया। ये पन्ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में हेरफेर से सम्बन्धित था।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्देश्य महामना मालवीय जी ने स्वयं तय किये थे पर अग्रेजों को उस पर आपत्ति नहीं थी, भारत सरकार को भी उस पर आपत्ति नहीं रही है लेकिन हिन्दू विशवविद्यालय का वर्तमान प्रशासन महामना के द्वारा तय किये गये उद्देश्यों से सहमत नहीं है और शायद इसीलिये उसने विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में परिवर्तन कर दिया है। अब यह महामना के सपनों का विश्वविद्यालय नहीं रहा । महामना ने इसकी स्थापना का प्रथम उद्देश्यअखिल जगत् की सर्वसाधारण जनता के एवं मुख्यतः हिन्दुओं के लाभार्थ हिन्दूशास्त्र तथा संस्कृत साहित्य की शिक्षा का प्रचार करना, जिससे प्राचीन भारत की संस्कृति और विचार की रक्षा हो सके तथा प्राचीन भारत की सभ्यता में जो कुछ गौरवपूर्ण था उसका निदर्शन होरखा था। {to promote the Hindu Shastras and of Sanskrit literature as means of preserving and popularising for the benefits of Hindus in particular and of the world at large in general, the best thought and culture of Hindus and all that was good and great.} यह उद्धरण काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पत्रिका प्रज्ञा के स्वर्ण जयन्ती विशेषांक से लिया गया है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने महामना द्वारा प्रथम क्रमांक पर निर्दिष्ट इस उद्देश्य सेअखिल जगत् की सर्वसाधारण जनता के लिये मुख्यतः हिन्दुओं के लाभार्थ” [for the benefit of Hindus in particular and of the world at large in general ] को हटा दिया है। ( देखें BHU site- bhu.ac.in )

यह कोई मानव त्रुटि नहीं है, गलती नहीं है, सोची समझी साजिश है इस महान विश्वविद्यालय की पहचान मिटाने का कुत्सित प्रयास है। महामना के नेतृत्त्व में जिन लोगों ने अपना सब कुछ समर्पित उन सब की आस्था तथा समर्पण के साथ धोखा है।

इस वाक्यांश को हटाना संभवतया उस पुरानी साजिश का नवीनीकरण है जो इस विश्वविद्यालय के नाम से हिन्दू शब्द हटाने के लिये दशकों पूर्व भी रची गयी थी। तब महामना द्वारा लिखित उद्देश्य के इन्ही शब्दों ने हिन्दू शब्द को मिटने से रोका था। हां उस काल खण्ड में हिन्दू विश्वविद्यालय सहित समस्त काशी में जबरदस्त आन्दोलन हुआ और कुत्सित साजिश ध्वस्त हुई थी पर आज जब विश्वविद्यालय के मूल उद्देश्य पर ही चोट हुई है विश्वविद्यालय में कोई प्रतिक्रिया सुनाई नहीं दे रही है, काशी में भी कोई कोहराम नहीं मचा है। यही कारण है कि प्रो. दीनबन्धु पाण्डेय जैसे चन्द संवेदनशील लोग क्रुद्ध तथा दुःखी हैं।

इस मुद्दे पर सभी राष्ट्रीय सोच वाले चिन्तकों को आगे आना होगा। यह छोटा विषय नहीं है। बल्कि एक ऐसे विश्वविद्यालय की पहचान से जुड़ा हुआ है जो नालन्दा तक्षशिला एवं विक्रम शिला की परम्परा का समकालीन प्रतिमान है जिसके स्नातकों ने हिन्दू धर्म तथा भारतीय संस्कृति की कीर्ति पताका सम्पूर्ण विश्व में लहराई है। इस लिये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हर नूतन पुरातन छात्र, स्नातक का दायित्त्व है कि इसका प्रतिरोध करे तथा महामना द्वारा स्थापित इस सर्व विद्या की राजधानी का चिर् पुराण चिर् नवीन उद्देश्य रक्षित हो सके।

प्रो. दीनबन्धु पाण्डेय जैसे कुछ लोग सक्रियता के साथ इसका प्रतिरोध कर रहे हैं किन्तु इनकी संख्या मुट्ठी भर ही है इसलिये प्रतिरोध की यह आवाज अनसुनी है। इस हेतु हम सब को सामने आना होगा सबल प्रतिरोध करना होगा। ध्यान रहे आज देश के दो बडे केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में दो नये तरह के कार्य हो रहें हैं। जहां एक ओर हिन्दू विश्वविद्यालय से हिनू पहचान समाप्त करने की साजिश चलरही है वहीं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की पांच शाखायें देश के विभिन्न क्षेत्रो के मुस्लिम बहुल इलाक़ों में खोली जा रही हैं यह सच्चर कमेटी के बाद नया कुत्सित प्रयास है। इन सब को आज समग्रता में देखना होगा। इन सभी देश विरोधी कृत्यों पर एक साथ प्रहार करना होगा।

सोमवार, 17 अगस्त 2009

सन्यास सहिष्णुता तथा लोकसंग्रह का मार्ग है------२

सनातन धर्म किसी एक मत पर आधारित है। ’एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति”इसका उत्स है।  इसीलिये दण्डधारी परिव्राजक शंकर भी अपनी माता के उर्ध्व दैहिक संस्कारों को स्वयं संपन्न करते हैं। शारीरक भाष्यकार यह सन्यासी शरीर का निषेध नहीं करता है अपितु उसकी निःसारता का प्रतिपादन करता है। यह मनसाऽप्यचिन्त्य रचना इन्द्रियानुभविक जगत तो नैसर्गिक है इसलिये लौकिक व्यवहारो का अपलाप कथमपि संभव नहीं है।  व्यवहार के स्तरपरयह मिथ्यात्व तर्क एवं अनुभव द्वारा अवबोध्य है इन्द्रियानुभव से नहीं। भौतिक अग्नि की दाहकता अलीक नहीं है, नहि श्रुतिसहस्रेणाप्यग्निर्शीतं कर्तुं शक्यते।
        बाबा रामदेव ने शंकर के जगत मिथ्यात्व सिद्धान्त से अपनी असहमति जतायी है ब्रह्म सत्यं को स्वीकार किया है। शकर ब्रह्मवादी है मायावादी या मिथात्ववादी नहीं है।  शंकर ने भी मिथ्यात्व के सिद्धान्त को उतना महत्त्व नहीं दिया है जितना हरिद्वार से लेकर काशी तक के शांकरमतावलम्बियों ने प्रतिपादित करने की कोशिश की है। आचार्य शंकर तो त्रिविध सत्ता के सिद्धान्त के उपन्यासकार हैं।
जिस प्रकार संख्या बल के आधार पर बाबा रामदेव को दबाव में लाया गया है। वह कठोर पान्थिकता की ओर संकेतित कर रहा है।स्वयं शंकर तो धर्म के विषय में सूक्ष्म निर्णय के लिये परिषद् व्यापार की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं। 
विरोध प्रदर्शन तथा अखबारी बयानबाजी से किसी दर्शन की श्रेष्ठता प्रतिपादित करने का तरीका सन्तो को शोभा नहीं देता है।  सन्तो द्वारा यह कहना कि यदि इस अपराध के लिये बाबा रामदेव ने क्षमा याचना नहीं कि तो उनका सामाजिक बहिष्कार किया जायेगा सन्यास धर्म के विरूद्ध  है, सन्यासी तो लोक तथा समाज का परित्याग ही है। यह आश्रम बिना समाज के परित्याग के सुलभ ही नहीं है। वह् तो सभी कर्मॊ तथा संबन्धों से उपर उठ कर लोक संग्रह मात्र के लिये कर्म की अवस्था है। अतः यह धमकी या चेतावनी वेदपथानुरोधी कैसे हो सकती है। हाँ इससे उलट यह सनातन धर्म को सामी पन्थो के समकक्ष अवश्य खडा कर देता है।
आद्यशंकराचार्य ने भी इस लोक को नित्य तथा वस्तुगत रुप में सत् मानने वाले मीमांसकों का गहन गभीर प्रत्याख्यान किया है। लेकिन वे इस प्रत्याख्यान  हेतु भी मण्डनमिश्र से शास्त्रार्थ का भिक्षाटन करते हैं। भिक्षाटन अनुरोध है निवेदन है चुनौती नहीं है।
’वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’ से किसी का विरोध नहीं है,होना भी नहीं चाहिये। किन्तु असहमति के स्वर संख्या बल पर नहीं दबाये जाने चाहिये। यदि पहले ऎसा हुआ होता तो बौध एव् मीमांसा मत के प्रत्याख्यानपूर्वक आचार्य शंकर का अद्वैत मत प्रतिष्ठित ही नहीं हो पाया होता।
विरोधि चिन्तन का खण्डन करने का अधिकार सबको है। पर यह सैद्धान्तिक धरातल ही बना रहे। पुनश्च वेद का प्रामाण्य मानने वाला कोई भी विचार सनातन का विरोधि नही है अपितु सनातन  वैचारिकी का ही एकभाग है। उसकी इस प्रकारसे प्रताडना आश्चर्यजनक है। 

शनिवार, 15 अगस्त 2009

सन्यास सहिष्णुता तथा लोकसंग्रह का मार्ग है।
योग गुरू बाबा रामदेव के शंकराचार्य विषयक अभिकथन पर काशी और हरिद्वार सहित देश भर के साधु संन्यासी  एवं दशनामी परंपरा के महनीय अनुयायियों ने जिसप्रकार से प्रतिक्रिया की उससे सनातन धर्म के तालिबानीकरण की गन्ध आने लगी है। शांकर मत धर्म नहीं है यह दर्शन है दर्शन मत वैभिन्य के द्वारा ही विकसित होता है। यह अकेला दर्शन भी  नहीं है।  सबसे प्राचीन भी नहीं है।भारत के वैचारिक इतिहास में इसका प्रतिरोध  पहली बार हुआ हो ऎसा भी नहीं है। यह दर्शन तो बौद्धों एवं जैनों के साथ खण्डन मण्डन पुरस्सर ही विकसित हुआ है। कुमारिल के निर्देश पर मण्डनमिश्र  के साथ हुआ शास्त्रार्थ विश्वविश्रुत है। स्वयं  जगद्गुरू आदिशंकर सांख्यों को अपने सिद्धन्त के विरूद्ध प्रधान  मल्ल कहते हैं।

आधुनिक भारत में भी महर्षि दयानन्द तथा  महर्षि अरविन्द द्वारा आचार्य शंकर के सिद्धान्तों की प्रखर आलोचना हुई है। किन्तु इन सबके होते हुये भी न तो भगद्पाद् शंकर की अवमानना हुई न इन आलोचको को दबाव में लाने की कॊशिश ही दिखाई देती है। भारतीय परम्परा तो यह मानती है कि धर्म का तत्त्व किसी गहन गुफ़ा में है और श्रेष्ठ जन जिस मार्ग पर चलते हैं वही धर्म पथ है। सत् का पथ इकलौता नही है। पुष्पदन्त के शब्दॊ में कहें तो रूचिनां वैचित्र्याद् ऋजु कुटिल नाना पथजुषाम्।  रास्ते अनेक हैं , शंकर  के पूर्व भी थे, शकर के पश्चात् भी हैं, शंकराचार्य का तो है ही  उनके अलावा भी है। यहां तक कि समस्त वेदान्त शंकर का अद्वैत मत  ही नहीं है।

दर्शन के विद्यार्थी तथा अध्येता के रुप में मै यह मानता हूं कि आद्वैत मत भारतीय दर्शनो में श्रेष्ठतम है किन्तु यह श्रेष्ठता युक्ति तथा तर्क के धरातल पर है । किन्तु आचरण के धरातल पर यह एकमेव है एसी अवधारणा कभी नहीं रही है। जिस प्रकार का शोरशराबा हुआ है वह सनातन धर्म के अज्ञान का परिचायक है। 

सभी प्रकार क्ए विरोधों के होते हुए भी काशी एवं हरिद्वार में सन्तों की प्रतिक्रिया सनातन धारा को चोट तो पहुंचाती ही है मध्यकालीन चर्च के व्यवहार तथा तालिबानी कार्य पद्धति की स्मृति करा देती है। चाहे जिस रुप में इसको लिया जाय भारत भूमि में स्वीकृत एवं प्रचलित सनातन पुरातन तथा सनातन वाद पथ के अनुकुल नहीं है। आखिर योगदर्शन के प्रतिपादक पतंजलि का अनुयायी ब्रह्मसत्यं जगतमिथ्या के सिद्धान्त के साथ सहमत हो इसके लिये उसे बाध्य करना उचित है क्या? असहमति का प्रकटीकरण अपराध है क्या?

असहमति या विरोध का होना स्वाभाविक है उसको दूर करने का प्रयास उचित तथा श्लाघ्य है। किन्तु इसके लिये दर्शन के क्षेत्र में शास्त्रार्थ की स्वीकृत विधि का ही उपयोग होना चाहिये। बल से,  दबाव से अथवा प्रभाव से सहमति बनाने की   विधि सनातन परम्परा के अनुकुल नहीं है। असहमति को खण्डित करने के लिये शास्त्रार्थ ही शिष्ट मर्यादित विधि है। ध्यान रहे इसस का भी प्रयोग दर्शन के ही क्षेत्र में संभव है। शास्त्रार्थ सिद्ध तथ्य होने से ही श्रद्धा उत्पन नहीं होती है वह तो तप के अधीन है 
 यदाचरति श्रेष्ठः तदेवेतरो जनाः ।
स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तत।